23 Nov 2025

'दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आजाद हैं...' पढ़ें परवीन शाकिर के लाजवाब शेर.

सब्र आ जाता

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया, बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता.

इक ज़ख़्म

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा, क्या खबर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा.

 मेरे दोस्त 

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आजाद हैं, देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन.

बहुत आसाँ .

यूं बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर, जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना.

 पूरे चांद

बात वो आधी रात की रात वो पूरे चांद की, चांद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी.

बदन टूटता

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है, जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की.