हर दिल की गहराई में उतरते हैं मिर्जा गालिब के ये शेर.
इश्क से तबीअत ने जीस्त का मजा पाया,
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया.
तबीअत ने जीस्त
रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'गालिब',
कहते हैं अगले जमाने में कोई 'मीर' भी था.
तुम्हीं उस्ताद
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी जुल्फ के सर होते तक.
इक उम्र
हम ने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होते तक.
खाक हो जाएंगे
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना,
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसां होना.
मुयस्सर नहीं इंसां
पूछते हैं वो कि 'गालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.
हम बतलाएं