'काम आ सकीं न अपनी वफाएं तो क्या करें...' पढ़ें अख्तर शीरानी के लाजवाब शेर.
गम-ए-जमाना ने मजबूर कर दिया वर्ना, ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते.
उन रस भरी आंखों में हया खेल रही है, दो जहर के प्यालों में कजा खेल रही है.
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम न होते न सही जिक्र तुम्हारा होता.
काम आ सकीं न अपनी वफाएं तो क्या करें, उस बेवफा को भूल न जाएं तो क्या करें.
दिन रात मय-कदे में गुजरती थी जिंदगी, 'अख्तर' वो बे-खुदी के जमाने किधर गए.
कुछ इस तरह से याद आते रहे हो, कि अब भूल जाने को जी चाहता है.