Introduction
09 December, 2025
V Shantaram: भारतीय सिनेमा की कहानी अगर कभी सुनाई जाएगी, तो उसमें कुछ नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज होंगे. उन चुनिंदा नामों में सबसे चमकदार नाम है वैंकटेश शांताराम वणकुद्रे, यानी वी. शांताराम का. वो सिर्फ एक फिल्ममेकर नहीं थे, बल्कि भारतीय फिल्मों की नई भाषा रचने वाले कलाकार थे. एक ऐसे इंसान, जिन्होंने एक्टिंग की, डायरेक्शन किया, एडिटिंग में एक्सपीरियंस लिया और प्रोड्यूसर बनकर सामाजिक मुद्दों पर बेहतरीन फिल्में बनाई. ये वो दौर था जब दुनिया में सिनेमा अपनी पहली चाल चल ही रहा था, तभी भारत में एक लड़का पैदा हुआ, जिसने आगे चलकर इस ऑर्ट को अपने एक्सपेरिमेंट्स और सोच से नई दिशा दे दी. आज की कहानी उसी एक्स्ट्राऑर्डिनरी कलाकार की है, जिन्हें लोग वी. शांताराम के नाम से जानते हैं.
Table of Content
- एक जिद्दी सपना
- जलती रही आग
- फिल्मी दुनिया में एंट्री
- जब बने डायरेक्टर
- शुरू हुआ नया दौर
- सिनेमा का गोल्डन टाइम
- लोगों की बदलती पसंद
- पुरस्कार और सम्मान

एक जिद्दी सपना
18 नवंबर, 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में पैदा हुए शांताराम, 5 भाइयों में दूसरे नंबर पर थे. पिता राजाराम एक गरीब दुकानदार थे, जो अपना खर्च चलाने के लिए रात में नाटक करने वाली मंडलियों को पेट्रोमैक्स लालटेन किराए पर देते थे. घर में गरीबी थी, लेकिन शांताराम का बचपन खुशमिजाज और बेफिक्री में बीता. शांताराम का मन पढ़ाई में कम लगता था, पर स्टेज पर आकर किसी की नकल उतारने में वो काफी माहिर थे. एक दिन शांताराम की यही कला उन्हें उस दौर के मशहूर थिएटर आर्टिस्ट गोविंदराव टेंबे की नजरों में ले आई. उन्होंने शांताराम को अपनी मंडली गंधर्व नाटक में शामिल कर लिया. लेकिन यहां पहुंचकर शांताराम को पहली बड़ी ठोकर लगी. दरअसल, उन्हें गाना नहीं आता था. उस दौर में म्यूज़िक प्ले, बिना सिंगिंग के सक्सेसफुल नहीं हो सकते थे. तब हुआ यूं कि शांताराम निराश होकर एक साल बाद ही घर लौट आए. उन्होंने कसम खाई कि अब थिएटर की दुनिया में कभी वापस नहीं लौटेंगे.
जलती रही आग
वी.शांताराम के परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. परिवार का साथ देने के लिए शांताराम ने रेल वर्कशॉप में नौकरी करनी शुरू कर दी. मेहनती तो वो थे ही, इसलिए जल्दी ही मालिक के भरोसेमंद भी बन गए. लेकिन एक दुर्घटना में उनके हाथ की दो उंगलियां कुचल गईं. अब नौकरी भी खतरे में थी और उनका फ्यूचर भी. तभी उन्हें एक बात याद आई कि उनके मामा के बेटे बाबूराव पेंढारकर महाराष्ट्र फिल्म कंपनी में मैनेजर हैं. वैसे भी आर्ट के लिए थोड़ी सी आग उनके अंदर तब भी जिंदा थी, इसलिए उन्होंने मामा के बेटे से अपने लिए नौकरी मांग ली और यहीं से शुरू हुई भारतीय सिनेमा के सबसे महान कलाकारों में से एक का असली सफर. मुंबई आकर शांताराम की पहली मुलाकात हुई एक असाधारण इंसान, बाबूराव पेंटर से. वो कितने खास थे, आप इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लोकमान्य तिलक ने उन्हें ‘सिनेमा का केसरी’ कहा था.

फिल्मी दुनिया में एंट्री
साल 1919 में शांताराम महाराष्ट्र फिल्म कंपनी से जुड़े. यहां हर दिन उनके लिए बहुत कुछ सीखने को था. सिनेमा उस समय पूरी दुनिया में भी नया था, भारत में तो और भी नया. कैमरा कैसे चलता है, एडिटिंग कैसे होती है, लाइट्स का इस्तेमाल कैसे किया जाता है, इन सब चीजों पर शांताराम बड़ी बारीके से ध्यान देते और सीखते. धीरे-धीरे 3 और यंग आर्टिस्ट उनके दोस्त बने- केशवराव धैबर, विष्णुपंत दामले और एस. फतेहलाल. तीनों में एक चीज़ कॉमन थी और वो थी सबके अंदर फिल्म बनाने का कीड़ा. फिर 1 जून, 1929 को उन्होंने एक फाइनेंसर के साथ मिलकर प्रभात फिल्म कंपनी की नींव रखी. इस स्टूडियो ने आगे चलकर भारतीय फिल्मों को एक नई दिशा देने का काम किया.

जब बने डायरेक्टर
साल 1927 में वी. शांताराम के डायरेक्शन में तैयार हुई पहली फिल्म, जिसका नाम था ‘नेताजी पालकर’. हालांकि, ये फिल्म अब आपको ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगी, पर उस दौर की चर्चाओं में इसका ज़िक्र मिल जाता है. इसके बाद उन्होंने साल 1929 में ‘गोपालकृष्ण’ बनाई, जिसमें बैलगाड़ी रेस का सीन पूरे देश में अलग ही लेवल पर पॉपुलर हो गया. आज के एक्शन सीन और बड़े सेट्स को देखा जाए तो, वो सीन काफी छोटा लगता है, पर उस समय के लिए रेवोल्यूशनरी था. फिर साल 1931 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘उदयकाल’ में शांताराम ने खुद शिवाजी का किरदार निभाया. लेकिन ब्रिटिश सेंसर बोर्ड इस फिल्म को देखकर परेशान हो गया, क्योंकि उसे ये आज़ादी के आंदोलन को बढ़ावा देने वाली लगी.
शुरू हुआ नया दौर
साल 1931 में जब ‘आलम आरा’ आई और भारत में टॉकी फिल्मों का दौर शुरू हुआ, तो प्रभात स्टूडियो ने भी अपनी पहली साउंड फिल्म बनाई. उसका नाम था ‘अयोध्येचा राजा’ यानी ‘अयोध्या का राजा’. ये भारत की पहली ऐसी फिल्म थी जो 2 भाषाओं में रिलीज़ हुई थी, मराठी और हिन्दी में. फिर साल 1933 में शांताराम ने भारत की पहली कलर फिल्म ‘सैरंधरी’ बनाई. इसका शूट भारत में और प्रोसेस जर्मनी में हुआ. लेकिन इसका रिजल्ट खास नहीं निकला, इसलिए फिल्म को रिलीज़ नहीं किया गया. इतनी मेहनत के बाद फिल्म को रोक देना आसान नहीं था, पर शांताराम के लिए क्वालिटी सबसे पहले थी. इसके बाद उन्होंने जर्मन एक्सप्रेशनिस्ट फिल्मों से इंस्पायर होकर फिल्म ‘अमृत मंथन’ बनाई. यहां पहली बार भारत में टेलीफोटो लेंस का इस्तेमाल हुआ. धर्मगुरु की आंख का क्लोज़-अप देखकर 1930 की ऑडियन्स दंग रह गई थी. इसके बाद साल 1936 में ‘अमर ज्योति’ आई, जो महिलाओं की फ्रीडम पर बनी एक सेंसिटिव कहानी थी.
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सिनेमा का गोल्डन टाइम
ये वो टाइम था जब शांताराम ने भारतीय सिनेमा को सामाजिक संदेशों के साथ जोड़ दिया. उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी में ‘दुनिया ना माने’ बनाई. सला 1937 में रिलीज़ हुई इस फिल्म की कहानी एक बुजुर्ग आदमी और एक कम उम्र की लड़की की शादी पर थी. अगली फिल्म ‘आदमी’ एक पुलिसवाले और वेश्या की कहानी थी. साल 1941 में रिलीज़ हुई ‘पड़ोसी’ हिंदू-मुस्लिम दोस्ती पर बेस्ड थी, जो आज भी काफी ताज़ा लगती है. वी शांताराम की ये सभी फिल्में उस टाइम के हिसाब से बहुत सेंसिटिव सब्जेक्ट पर बनी थीं. फिर साल 1942 में उन्होंने अपना स्टूडियो बनाया, जिसका नाम रखा- राजकमल कलामंदिर. ये नाम उन्होंने अपने माता-पिता राजाराम और कमलाबाई के सम्मान में रखा था.
लोगों की बदलती पसंद
1950 के दशक में ऑडियन्स हल्की-फुल्की, कलर और एंटरटेनिंग फिल्में चाहते थे, शांताराम ने उनकी नब्ज पहचान ली. तब उन्होंने 1955 में ‘झनक झनक पायल बाजे’ बनाई. ये कलरफुल, म्यूजिक और डांस से भरी फिल्म सुपरहिट थी. इसके बाद साल 1957 में उनकी ‘दो आंखें बारह हाथ’ रिलीज़ हुई. ब्लैक एंड व्हाइट में बनी ये फिल्म आज भी भारतीय सिनेमा की सबसे बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है. इसी फिल्म ने बर्लिन में सिल्वर बियर जीता, हॉलीवुड प्रेस से इंटरनेशनल अवॉर्ड लिया और भारत में ना जानें कितने खिताब अपने नाम किए. फिर धीरे-धीरे वी शांताराम ने अपनी फिल्मों में रंग, डांस और म्यूज़िक का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. उनकी ‘नवरंग’, ‘स्त्री’, ‘सेहरा’, ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘बूंद जो बन गई मोती’ ऐसी ही फिल्में थीं. वैसे, उन्होंने कभी किसी फिल्म की स्क्रिप्ट खुद नहीं लिखी, पर वी. शांताराम की फिल्में उनके सिग्नेचर स्टाइल से भरी होती थीं. वो तकनीक को उतना ही महत्व देते थे जितना कहानी को. कैमरा से लेकर लाइटिंग और एडिटिंग तक, वी शांताराम हर डिपार्टमेंट को बराबर समझते थे. यही वजह है कि वो भारतीय सिनेमा के सबसे बैंलेंस्ड और कम्पलीट फिल्ममेकर के नाम से भी फेमस हुए.

पुरस्कार और सम्मान
अब बात करें वी शांताराम के अवॉर्ड की तो, उनकी ‘अमर भूपाली’ को कान फिल्म फेस्टिवल में ग्रेंड प्रिक्स मिला, ‘दो आंखें बारह हाथ’ को बर्लिन में सिल्वर बियर और हॉलीवुड प्रेस से सैमुअल गोल्डविन अवॉर्ड मिला. साल 1986 में उन्हें भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार पुला. वैसे, अपनी जिंदगी के 89 सालों में से उन्होंने 79 साल फिल्मों को दे दिए. यही वजह है कि उन्हें एक इंसान नहीं, बल्कि संस्था कहा जाता है. वो एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का आईना, टेक्नोलॉजी की लेबोरेटरी और आर्ट का सेलिब्रेशन बना दिया.
बायोपिक
अब उन्हीं की बायोपिक बन रही है, जिसमें सिद्धांत चतुर्वेदी वी. शांताराम का रोल निभाने वाले हैं. तमन्ना भाटिया भी अब सिद्धांत के साथ इस नई बायोग्राफिकल ड्रामा में नजर आएंगी. फिल्म का नाम वी. शांताराम (V Shantaram) ही रखा गया है. फिल्म की कहानी अभिजीत शिरीष देशपांडे ने लिखी और इसके डायरेक्टर भी वहीं हैं. कहानी वी. शांतराम की उस जर्नी को दिखाएगी, जिसमें उन्होंने साइलेंट फिल्मों के ज़माने से लेकर साउंड और फिर रंगीन फिल्मों तक का दौर देखा. फिल्म में तमन्ना भाटिया जयश्री का रोल निभा रही हैं. जयश्री उस दौर की पॉपुलर एक्ट्रेस थीं, जिन्होंने ‘डॉ. कोटनिस की अमर कहानी’, ‘शकुंतला’, ‘चंद्र राव मोरे’ और ‘दहेज’ जैसी शानदार फिल्मों में काम किया था. इसके अलावा जयश्री, वी. शांतराम की दूसरी पत्नी भी थीं. फिल्म से सिद्धांत और तमन्ना का पहला लुक भी रिलीज़ हो चुका है. इसके बाद सोशल मीडिया पर लोग वी. शांताराम की कहानी ढूंढ़ रहे हैं. आज की जेनेरेशन ये जानना चाहती है, कि हिंदी सिनेमा के ये दिग्गज कौन थे, जिन पर बायोपिक बन रही है. वैसे, फिलहाल फिल्म की रिलीज़ डेट सामने नहीं आई है. लेकिन इतना तय है कि अगले साल आप वी. शांताराम की कहानी को स्क्रीन पर देख पाएंगे.
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