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कहां से आया ‘जय भीम’ का नारा? आज़ादी के बाद दलितों का जागरण जिसकी जड़ें छिपी हैं एक गांव में

by Preeti Pal
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कहां से आया ‘जय भीम’ का नारा? आज़ादी के बाद दलितों का जागरण जिसकी जड़ें छिपी हैं एक छोटे गांव में

Jai Bhim Slogan: जय भीम’ सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक विचार, एक पहचान और समानता का संकल्प है, जिसकी नींव महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में रखी गई थी.

06 December, 2025

Jai Bhim Slogan: भारत में दलित समाज की पहचान, जागरूकता और आत्मसम्मान का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुका “जय भीम” का नारा आखिर शुरू कहां हुआ? दरअसल, आज भी ज़्यादातर लोगों को लगता है कि ये नारा टाइम के साथ खुद-ब-खुद पॉपुलर हुआ, लेकिन इस नारे का जन्म बड़ा ही खास और ऐतिहासिक पल था, वो भी महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव मकनपुर में. चंद्रपुर से करीब 80 किलोमीटर दूर छत्रपति संभाजीनगर जिले के कन्नड़ तहसील में 30 दिसंबर, 1938 को मकनपुर परिषद का आयोजन किया गया. इसे आयोजित किया था भाऊसाहेब मोरे ने, जो उस समय मराठवाड़ा के शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के पहले अध्यक्ष थे.

शामिल हुए डॉ. अम्बेडकर

इसी परिषद में शामिल होने आए थे भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर. यहीं, पहली बार सभा में भाऊसाहेब मोरे ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि जैसे हर समाज अपने देवता के नाम से अभिवादन करता है, वैसे ही हमें उस शख्स के नाम से एक-दूसरे का स्वागत करना चाहिए जिसने हमें सम्मान, अधिकार और प्रगति का रास्ता दिखाया, और वो हैं डॉ. अम्बेडकर. यही वो पल था जब पहली बार लोगों ने जोरदार आवाज़ में कहा- जय भीम. बाद में इसे आधिकारिक रूप से समुदाय के नारे के रूप में स्वीकार भी किया गया.

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खास था सम्मेलन

इस दौरान बड़ा राजनीतिक तनाव था. उस वक्त ये पूरा इलाका हैदराबाद के निज़ाम राज्य के अधीन था. दलितों पर अत्याचार, उन्हें धर्म बदलने का दबाव, ऐसे कई मुद्दों को लेकर भाऊसाहेब ने डॉ. अम्बेडकर को इस परिषद में बुलाया था. लेकिन इसमें भी एक बड़ी प्रोब्लम थी, क्योंकि निज़ाम सरकार ने डॉ. आंबेडकर को अपने राज्य में भाषण देने से बैन किया था. तब जाकर मकनपुर को चुना गया, क्योंकि ये शिवना नदी के किनारे ब्रिटिश भारत की सीमा में आता था. इस तरह अम्बेडकर यहां आकर खुलकर बोल सके. आज भी उसी जगह ईंटों का वो मंच मौजूद है, जहां से डॉ. आंबेडकर ने लोगों को संबोधित किया था. दिलचस्प बात ये है कि ये सम्मेलन हर साल 30 दिसंबर को आयोजित होता है. साल 1972 के भीषण सूखे में भी ये परंपरा टूटी नहीं.

इतिहास की विरासत

एसीपी प्रवीण मोरे बताते हैं कि उनकी दादी ने इस सम्मेलन के खर्च के लिए अपने गहने गिरवी रख दिया थे. इसके लिए लोग दूर-दूर से पैदल चलकर आए, कईयों ने निज़ाम पुलिस के प्रतिबंधों को पार कर नदी लांघी और इस सभा में पहुंचे. तभी तो कहते हैं कि ये सिर्फ एक सम्मेलन नहीं था, बल्कि दलित समाज के जागरण का निर्णायक मोड़ था.

‘जय भीम’ की भावना

6 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी डॉ. आंबेडकर को महापरिनिर्वाण दिवस पर श्रद्धांजलि दी. उन्होंने कहा कि उनका नेतृत्व और न्याय व समानता के प्रति समर्पण भारत की यात्रा को लगातार दिशा देता है.

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